डुकलान की तेरि किताब छौं में पहाड़ की व्यथा-कथा, बोई कू बक्सा और सब कुछ

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-नेगीदा, सुरेखा डंगवाल की मौजूदगी में हुआ किताब का विमोचन
-गढ़वाली बोली-भाषा अभियान पर चर्चा, सामूहिक प्रयासों पर जोर
उदंकार न्यूज

-पहाड़ के संवेदनशील कवि और कलाकार मदन मोहन डुकलान की किताब है-तेरि किताब छौं। जैसे की किताब ही खुद अपना परिचय दे रही हो। पहाड़ की कथा-व्यथा का दर्पण, संवेदनाओं की पोथी और भी बहुत कुछ। जितनी संजीदगी इसकी 54 कविताओं में है, उतना ही संजीदा इसका विमोचन का मंच देहरादून की दून लायब्रेरी में शनिवार को सजा। मंच की सबसे बड़ी शान पहाड़ की संवेदनाओं के चितेरे नरेंद्र सिंह नेगी थे, तो मुख्य अतिथि बतौर शिक्षाविद् और प्रखर वक्ता प्रो ़सुरेखा डंगवाल थीं। लोक संस्कृति के क्षेत्र की अपनी तरह से सेवा कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता कवींद्र इष्टवाल की मौजूदगी का अपना महत्व रहा।
डुकलान की कविताओं की सभी ने अपने अपने अंदाज में मीमांसा की। खासियत ये रही कि संवाद का माध्यम सिर्फ और सिर्फ गढ़वाली में रहा। नेगीदा ने गढ़वाली बोली भाषा के संबंध में उपजी नई तरह की चिंता को सामने रखा। कहा-पहले लिखने वाले कम थे, इसलिए चिंता होती थी। अब लिखने वाले ज्यादा हैं, लेकिन पढ़ने वाले कम हैं। नेगीदा नए कलाकारों पर भी बोले। कहा-गा तो सभी रहे हैं, लेकिन पढ़ कोई नहीं रहा।

प्रो सुरेखा डंगवाल किताब पर बोली और खूब बोलीं। डुकलान की बोई कू बक्सा जैसी कविताओं को अपने से जोड़ते हुए प्रो डंगवाल ने अपनी मां और नानी तक को याद किया। मदन मोहन डुकलान ने अपनी कुछ कविताओं को पढ़कर सुनाया, तो कई आचलिक फिल्मों में उनके लिखे गीतों को स्वर व धुन देने वाले आलोक मलासी भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने छि भै यार गाकर सुनाया, तो वहीं सुषमा बड़थ्वाल ने गुनगुनाया-तेरि किताब छौं। पत्रकार गणेश खुगसाल गणि ने विनसर प्रकाशन की इस किताब की सारगर्भित समीक्षा की। बेजोड़ संचालन गिरीश सुंद्रियाल ने किया। ये अजब स्थिति रही, कि जब इस कार्यक्रम में गढ़वाली बोली-भाषा के उत्थान के लिए तमाम पहलुओं पर चर्चा हो रही थी, उसी वक्त गढ़वाली भाषाविद् अचलानंद जखमोना के देहावसान की सूचना भी आई। उन्हें भावपूर्ण श्ऱद्धांजलि अर्पित की गई।

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