आपातकाल का वो स्याह दौर, जिसने सिर्फ और सिर्फ तकलीफ ही दी

उदंकार न्यूज
-सफेद दाड़ी, पतली-दुबली काया और कुर्ता-पायजामा विजय स्नेही की पहचान है। अब 74 वर्ष के हैं, लेकिन पूरी तरह से सक्रिय हैं। आपातकाल की तमाम यादें और बातें खुद में समेटे हुए हैं। जिक्र करने भर की देर है। एक फिल्म जैसे चल निकलती है, वैसा ही कुछ महसूस होता है। याद करते-करते वह पहुंच जाते हैं, आपातकाल लागूू होने से पहले की स्थिति में। उन्हें याद आने लगता है देहरादून का उस वक्त का माहौल। उन्हें पचास वर्ष पहले की बात याद करने के लिए कोई माथापच्ची नहीं करनी पड़ती, बल्कि एक के बाद एक पूरी कहानी, किस्से उनकी जुबान पर फूटने लगते हैं।
मैं उस वक्त अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में सक्रिय था। इंदिरा गांधी के शासन में जुल्मोंसितम का दौर शुरू हो गया था। पटना में सरकार के इशारे पर पुलिस ने छात्रों का दमन कर दिया था। छात्रों को गोली मार दी गई थीं। हॉस्पिटल में छात्रों की हालत देखकर जेपी नारायण रो पडे़ थे और लोगों के दबाव के बाद पूरे आंदोलन का नेतृत्व उन्होंने संभाल लिया था। आंदोलित बिहार की सारी जानकारी देहरादून में हमें मिल रही थी। विजय स्नेही आगे बताते हैं-देहरादून में आंदोलन को गरमाने की हमने पूरी तैयारी कर ली थी। इस संबंध में जन संघर्ष समिति और छात्र संघर्ष समिति बनने लगी थी। जन संघर्ष समिति, जिसमें तमाम राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेता शामिल रहे, जबकि छात्र संघर्ष समिति के नाम से ही स्पष्ट था, कि इसमें छात्र इकट्ठा होकर आंदोलन का बिगुल बजाएंगे।
अपनी बातचीत में विजय स्नेही ने इस संघर्ष समिति के जिला संयोजक रहे अपने साथी प्रभाकर उनियाल का बार-बार जिक्र किया। पुलिस के चंगुल से बचने के लिए उसे चकमा देने की तमाम सारी बातें बताते हुए विजय स्नेही खूब उत्साहित नजर आए। बकौल, विजय स्नेही-इस बीच, मौका पाकर हमने एक ऐसे मशाल जुलूस का आयोजन किया, जिसने पुलिस-प्रशासन की नींद उड़ा दी। हालांकि तब तक आपातकाल लागू नहीं हुआ था, लेकिन आपातकाल जैसी सख्तियां धीरे-धीरेे लागूू होने लगी थीं। यह मशाल जुलूस डीएवी कॉलेज देहरादून से निकला और कोतवाली के पास पहुंचकर समाप्त हो गया। यह सब बहुत तेजी से किया गया। जब तक पुलिस-प्रशासन हरकत में आता, हम सभी अपने सुरक्षित ठिकानों पर पहुंच चुके थे। इसके बाद, कई दिन तक पुलिस मुझे और प्रभाकर उनियाल को पकड़ने की फिराक में रही। इस क्रम में विद्यार्थी परिषद के कार्यालय भी वह पहुंची, लेकिन दोनो पुलिस के हत्थे नहीं चढे़।
विजय स्नेही का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से गहरा जुड़ाव रहा है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में विभिन्न दायित्वों के अलावा वह हिंदू जागरण मंच के मेरठ प्रांत के मंत्री भी रहे हैं। इसके अलावा, संघ की अहम बैठकों की व्यवस्था का प्रश्न हो या फिर संवाद समिति के जरिये प्रचार-प्रसार का काम विजय स्नेही को ही तलाशा जाता था। आपातकाल लागू हो जाने के बाद देहरादून में पुलिस के साथ लुकाछिपी का उन्होंने खेल काफी खेला। वह अपनेे साथियों के साथ पुलिस से छिपते-छिपाते आंदोलन का काम करते रहते। विजय स्नेही बताते हैं-उन दिनों वह अपने लक्खी बाग स्थित घर पर सोते थे, क्योंकि वहां पर हर वक्त पुलिस के छापे का डर रहता था। राजपुर रोड पर एक परिवार, जिनके साथ उनके पारिवारिक रिश्ते थे, वहीं पर उनका ठिकाना हुआ करता था। पुलिस उन्हें पकड़ने की कोशिश करती रही, लेकिन शुभचिंतक पहले ही पुलिस की कार्रवाई की सूचना दे दिया करते थे। इससे उनका बचाव हो जाता था। आंदोलन में सक्रियता का यह नतीजा रहा कि उनका सेनेटरी का व्यवसाय धीरे-धीरे प्रभावित होने लगा। नौबत ये आ गई कि स्कूटर में पेट्रोल भरवाने के भी लाले पड़ने लगे। मगर इन स्थितियों में भी आंदोलन में सक्रियता कम नहीं की।
विजय स्नेही की आंदोलन में सक्रियता का यह आलम था कि लखनऊ से जारी होने वाली मीसा वारंट वाले लोगों की सूची में उनका नाम भी शामिल हो गया था। स्नेही बताते हैं-मेरे और दो अन्य लोगों के नाम मीसा वारंट की सूची में शामिल थे। ये दो अन्य नाम थे-प्रभाकर उनियाल और अनिल वत्स। विजय स्नेही को उनके परिचित एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी ने मीसा के तहत उनकी जल्द ही अरेस्टिंग हो जाने की सूचना दी। साथ ही, सलाह भी दी कि वह कुछ समय के लिए देहरादून से बाहर चले जाएं, तो बेहतर रहेगा। आपातकाल लागूू हुए साल भर से ज्यादा का समय हो चुका था। परिजनों, दोस्तों सबकी सलाह मानकर स्नेही ने देहरादून को छोड़ने का मन बना लिया। विजय स्नेही बताते हैं-यह फैसला कठिन था, लेकिन लेना पड़ा। अपने परिचित के कहने पर मैं नरौली (मुरादाबाद) चला आया। मेरे परिचित की यहां 50 बीघा जमीन थी और क्रशर था। निर्वासित होकर खेती-बाड़ी का काम किया, मगर मन में आपातकाल और उससे जुड़ी तमाम सारी बातें ही घूमती रहती। वर्ष 1977 में आपातकाल खत्म होने की सूचना थी नरौली के खेतों में ही मिली। कुछ समय बाद फिर देहरादून लौट आया। मगर आपातकाल का स्याह दौर कभी नहीं भूल पाया, जिसने मुझसे देहरादून छुड़वाया, मेरी रोजी-रोटी के जरिये को प्रभावित किया। विजय स्नेही का मानना है कि भारत जैसे देश में आपातकाल के लिए कभी कोई जगह नहीं हो सकती। आजाद भारत के इतिहास में आपातकाल एक बदनुमा धब्बे की तरह है।