लोक संगीत के रंग: पहाड़ के गीतों में प्रभावी ढंग से हैं जीवन के मूलमंत्र

उदंकार न्यूज
-सांस छिन आस/औलाद तुम्हारी हमारी/डाली झम झमले/ना काटा/यूं न तुम्हारू क्या कार/बिचारी डाली झम। (हमारी सांस, हमारी संतान जैसे हैं ये पेड़ पौधे, इन्हें मत काटिए, इन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, बेचारे पेड़ पौधे।) उत्तराखंड के शीर्ष रचनाकार नरेंद्र सिंह नेगी के पर्यावरण प्रेम के ऐसे एक नहीं, कई गीत हैं। परिवार और समाज को केंद्र में रखकर भी उन्होंने कई गीत बनाए हैं। मसलन-देसू-परदेस न रावा/नौना बैकू डेरा आवा/खाली हवेगिन गौं का गौं/बांझ पौडीगिन मौं का मौ/मुर्दा तक उठन्दरू नीं/जांदी मौं च क्य कर क्वी। (देश-विदेश में मत रहो/बच्चों अपने घर वापस आओ/गांव के गांव खाली हो गए हैं/परिवार के परिवार बर्बाद हो गए हैं/गांव में शव उठाने वाला भी कोई शेष नहीं है/खत्म होते परिवार हैं/कोई क्या करे।)
परिवार, समाज और पर्यावरण से जुडे़ जीवन के मूूलमंत्र पहाड़ के गीतों में पूरी दमदारी से मौजूद रहे हैं। परिवार, समाज और पर्यावरण बचाने की जिस आवश्यकता को हर स्तर पर महसूस किया जा रहा है, पहाड़ के गीत उसे बहुत पहले से स्वर दे रहे हैं। रचनाकारों की लंबी सूची है, जिसने समय-समय पर इन विषयों पर आवाज बुलंद की। परिवार बचा रहे, समाज एकजुट हो और पर्यावरण का संरक्षण हो, ऐसे संदेश देकर उत्तराखंड में लगातार गीत लिखे और गाए जा रहे हैं।
यह वर्ष 1984 की बात है, जबकि प्रख्यात पर्यावरणविद् स्वर्गीय सुंदर लाल बहुगुणा ने स्कूल-काॅॅलेजों पर फोकस करते हुए वहां पर्यावरण जागरूकता के लिए काम किया था। वह भाषण तो देते ही थे, लेकिन अपने टेपरिकार्डर से बच्चों को पर्यावरण के गीत भी जरूर सुनाया करते थे। इस दौरान, यह गीत सबसे ज्यादा बजता-ना काटा तौं डाल्यूं (इन पेड़-पौधों को मत काटो।) पर्यावरण के तमाम गीत पहाड़ में आज भी गूंज रहे हैं-आवा दीदा भुलौं आवा/नांग धरती की ढकावा/डाली बन बनी लगावा/आवा देवतो का नौ की डाली रोपा/पुण्य कमाओ/हिटा रमझम/चला भै ढम ढम।(आओ भाइयों आओ, पेड़-पौधा विहीन धरती, जो कि बिना वस्त्रों के दिख रही है, उसे वस्त्र पहनाकर उसकी लाज बचाओ, आओ देवी-देवताओं के नाम पर पेड़-पौधे लगाकर पुण्य कमाओ, शान से चलो।)
पहाड़ के गीतोें में टूटते परिवार और समाज की चिंता भी दिखाई दे रही है-ना छुंयाल रंया घोर मा/ना त हुंगरा लांद क्वी/सुणिकी बाबा जी कू कणाहट/ब्वे रंगरयांद/यखुली यखुली/मांजी बबणांद/यखुली यखुली। (घर-गांव में अब कोई बातूनी नहीं रह गया है, ना ही कोई हां-हां करके उपस्थिति का अहसास कराता है, बीमार पिताजी का कराहना सुनकर मां अकेले-अकेले परेशान होती है, बुदबुदाती है।)
परिवार, समाज और पर्यावरण पर सबसे ज्यादा गीत लिखने वाले नरेंद्र सिंह नेगी मानते हैं कि यह पहाड़ ही नहीं, बल्कि सभी जगह के ज्वलंत विषय हैं। इन तीनों ही विषयों पर बहुत तेजी से बदलाव देखने को मिला है। परिवार, समाज और पर्यावरण को बचाने के लिए एकजुट और ईमानदार प्रयासों की जरूरत है। मिलती-जुलती राय गीतकार सतीश नेगी की भी है। वह कहते हैं-पहाड़ परिवार, समाज और पर्यावरण इन तीनों के संबंध में कभी बहुत समृद्ध था, लेकिन अब स्थिति वैसी नहीं रही है। यह विडंबना है, लेकिन समय रहते यदि अच्छे कदम उठा लिए जाएं, तो स्थिति संभल सकती है।